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आईए जानें हमारे गांव में उपजाए जाने वाले तिंवरा बाऊटरा से होने वाले फायदा के बारे में

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


हमारे ग्राम अचनाकपुर, तहसील पोड़ी-उपरोड़ा, जिला कोरबा, छत्तीसगढ़ में तिंवरा बाऊटरा की फसल से बहुत ही ज्यादा लाभ मिलता है। इस फसल को धान की फसल कटाई के पूर्व बोया जाता है। तिंवरा के बीज को दाल के रूप में प्रयोग किया जाता है और इसके पत्ते को भी सब्जी के लिए उपयोग किया जाता है। इसके दाल की पिसाई कर बेसन तैयार होता है और फिर विभिन्न प्रकार के सब्जियों के लिए उपयोग किया जाता है। तिंवरा और बाऊटरा की खेती करने से हमारे आदिवासी गोंड जनजाति के किसानों को आर्थिक रूप से लाभ प्राप्त होने के साथ ही फायदा भी मिलता है।

तिंवरा बाऊटरा

हमारे आदिवासी गोंड जनजाति के लोग ज्यादातर निजी व्यवसाय और खेती-किसानी एवं पेड़-पौधों पर अधिक निर्भर रहते हैं। हमारे लोग हर साल की भांति इस वर्ष भी धान की फसल के बाद तिंवरा और बाऊटरा को हर एक या दो साल में बोते ही रहते हैं। क्योंकि, इस फसल से आदिवासियों को बहुत लाभ मिलता है। धान की फसल कटने के बाद तिंवरा का बीज बोया जाता है। तिंवरा का बीज ऐसे खेतों में बोया जाता है, जहां पर जमीन हल्का गीला हो। चूँकि, ऐसे खेतों में तिंवरा बहुत अच्छा होता है। और एक दो महीनों में इसका भाजी खाने लायक हो जाता है।

तिंवरा बाऊटरा नींदाई करते हुए

भाजी होने के बाद, किसान तिंवरा का रखवाली करने के लिए रोज वहां जाते हैं। और वहीं पर मैडइच्छा बनाकर दिन भर उसमें रहतें है। फिर, शाम को वापस घर आ जाते हैं और यह सिलसिला तिंवरा के पक जाने तक रहता है। ताकि, तिंवरा बाऊटरा को गाय, भैंस, और बकरी से बचाया जा सके। हमारे लोग तिंवरा भाजी को तोड़कर, सब्जी बनाकर बहुत चाव से खाते हैं और इसके भाजी को धूप में सुखा कर भी रख दिया जाता है। ताकि, उसको बाद में भी खा सकें।


कुछ दिन बाद उसमें फल लगना शुरू हो जाता है। इसके फल को तोड़कर, उसके बीज का जो कच्चा भाग रहता है, उसे बटकर कहते हैं, जिसे सब्जी बनाकर खाते हैं। और तिंवरा को उसके घास समेत, उसे पैरा के साथ मिलाकर होरा भी भुंजते हैं। इसे भून कर खाने से बहुत अच्छा लगता है और इससे पेट दर्द नहीं करता है। बाकि, बहुत सारा होरा को भूनकर बरसात के समय के लिए रख देते हैं। क्योंकि, वह होरा उस समय और भी स्वादिष्ट लगता है। तिवंरा और बाउटरा को भूनकर बेचते भी हैं। हमारे गोंड जनजाति के लोग, तिंवरा के फसल पकने के बाद उसको नींदाई कर घर लातें हैं। फिर, दो-तीन दिनों तक धूप में अच्छे से सुखाया जाता है और थोड़ा-थोड़ा करके लकड़ी के डंडे से उसे पीटते हैं। इससे बीज का छिलका और धुरसा निकल जाता है।

तिंवरा बाऊटर पिटाई करते हुए

पीटने के बाद, सूपा के मदद से उसके बीज को अलग करते हैं। तिंवरा और बाउटरा के बीज को उबालकर, घोगरी सब्जी भी बनाकर खाते हैं। हमारे आदिवासी गोंड समाज के शादी-विवाह में, छट्टीयों और परगोनी में बाउटरा का दाल ही खिलाते हैं। तिंवरा के भाजी, फल, बीज और यहाँ तक की इसके घाँस-फूस भी गाय-भैंस के चारा के लिए काम आते हैं। लोग तिंवरा और बाउटरा को अलग-अलग दामों में बेचतें हैं।

तिंवरा बाऊटरा के घास को अलग करते हुए

हमारे गोंड जनजाति के लोग इस फसल को हर साल उपजाना पसंद करतें हैं। क्योंकि, इस तिंवरा और बाउटरा की खेती करने से हमारे आदिवासी किसानों को बहुत लाभ और फायदा मिलता है। इस फसल से किसी को नुकसान नहीं होता है और इसके सभी चीज़ हमारे लिए उपुक्त होते हैं। इसके भाजी को कच्चा भी खा सकते हैं, इससे हमें बहुत ताकत मिलती है और हमारा शरीर भी स्वास्थ रहता है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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