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जानिए पण्डों जनजाति के सैला नृत्य के बारे

आदिवासियों के अधिकतर के त्योहार मौसम और फसलों के उत्पादन से जुड़े हैं। खेतों में बीज बोने से लेकर फसल पक कर कटने तक किसान उत्सव मनाते हैं। त्योहारों में आदिवासी किसान गीत गाकर और नृत्य करके उत्सव मनाते हैं। ऐसा ही एक नृत्य पंडो जनजाति के लोग भी करते हैं जिसे सैला नृत्य कहा जाता है।

सज धज कर नाचने के लिए जाते युवक

आदिवासी पंडो जनजाति के लोग सैला नृत्य को पारम्परिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं। यहॉं के बुजुर्गों द्वारा बताया जाता है कि बहुत पुराने समय में सूखा पढ़ा था उस वर्ष बहुत कम बारिश हुई थी उस समय खेतों में अनाज नहीं उग पाने से क्षेत्र में अकाल पड़ गया था। लोगों की अनेकों प्रार्थनाओं के बाद अगले सालों में खूब बारिश हुई और खेत अनाज की फसलों से लहलहाने लगे। किसानों को उनकी मेहनत का फल अपने खलिहानों में दिखने लगा। घर-आँगन में अनाज भरे हुए थे और चारों ओर हर्ष उल्लास का माहौल था। इस खुशी को जाहिर करने के लिए आदिवासियों गाने और नाचने का फैसला लिया। आदिवासियों में भले ही भैतिक सम्पदाओं की कमी रहती हो लेकिन वो छोटी-छोटी चीजों में अपनी खुशी ढूंढ लेते हैं।


पण्डो जनजाति के लोग अपने इस नृत्य की परंपरा को हर वर्ष फसल काटने के बाद नवंबर या दिसंबर माह से शुरुआत करते हैं। युवाओं द्वारा गाँव के बैगा के घर में अखड़ा बनाया जाता है। इस अखड़ा में बैगा गाँव के ठाकुर, ठकुराइन एवं सभी देवी-देवताओं के से नारियल और अगरबत्ती से पूजा करते हैं, एक नारियल को कपड़े में लपेट कर भी रख दिया जाता है। उसी रात से लड़के नृत्य का अभ्यास करना शुरू करते हैं। विभिन्न गीतों के अनुसार इस नृत्य को सीखने में 10 या 12 दिन लग जाते हैं। सीखने के बाद उन्होंने वे लकड़ी या बांस की छोटी-छोटी टहनियों की डंडा बनाते हैं और फ़िर पूरे वेशभूषा के साथ गाँव के हर घर में अपना नृत्य दिखाते हैं, उनके नृत्य को देखकर लोग उन्हें अपना इच्छानुसार धान,चावल या पैसा दान करते हैं, यह सैला नृत्य छेरछेरा के त्योहार तक चलता है।


पंडो जनजाति की इस परंपरा में उनकी सामुदायिक विशेषता भी भली-भांति दिखाई देती है। इस समय गाँव के लोग अपने आपसी मन मुटाव भी दूर करते हैं एक दूसरे के करीब आकर अपने संबंधों को सुदृढ़ करते हैं। सैला नृत्य करने वाले लोग बताते हैं कि नृत्य के दौरान इकट्ठा हुए रुपया, चवाल आदि से गाँव के सभी महिला, पुरुष एवं बच्चे मिलकर वनभोज करते हैं और आनंद मानते हैं, जो चवाल या धान बच जाता है उसे शादी-विवाह, छठी या दशगात्र आदि में उपयोग किया जाता है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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