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कोरिया फल की औषधि से आदिवासी करते हैं मलेरिया का इलाज

आदिवासी अर्थात आदिकाल के वासी, सदियों से जल जंगल ज़मीन से जुड़े रहने के कारण आदिवासियों को जीवन जीने के हर ज़रूरी चीज़ की जानकारी होती है। आदिवासी बिना आधुनिक दवाई और डॉक्टर के अपने सभी बीमारियों का इलाज जंगल में पाए जाने वाले जड़ी बूटी के औषिधि से करते आए हैं। उन्हीं में से एक है मलेरिया और सिर दर्द का इलाज करने वाली औषधि जिसे आदिवासी कोरिया के नाम से जानते हैं जिसके जड़ से लेकर फल, फूल, पत्ती सभी काम आते हैं।

कोरिया के फल

इस पौधे के जरिए आदिवासी आमदनी भी प्राप्त कर लेते हैं, सरकारी औषधालय में इस कोरिया के फलों का विशेष महत्व रहता है। वर्तमान समय में कोरिया का फल लगा हुआ है और पककर तैयार हो गया है, जिसे एकत्रित करके उस फल में से बीज निकाला जाता है। कई आदिवासी दुकानों में इसके बीज को बेचकर आय प्राप्त कर अपना जीवन यापन करते हैं। एक दुकानदार से पूछने पर हमको यह जानकारी मिली कि कोरिया बीज का वर्तमान में खरीदी रेट प्रति किलो 150 रुपया है। हमने उनसे यह भी पूछा की इस कोरिया फल का क्या किया जाता है? तो उन्होंने बताया कि "जो आप मलेरिया के लिए टेबलेट खाते हैं उसमें इस बीज का मिश्रण रहता है जिसके जरिए मलेरिया का जड़ से तोड़ने में यह सहयोग करता है जिसे हम टेबलेट के रूप में लेते हैं जैसे कि पेरासिटामोल, आदि।"


आदिवासी लोग टेबलेट का उपयोग ना करके इसी कोरिया के फलों को पेस्ट बनाकर या फिर काढ़ा बनाकर सेवन करते आए हैं। कोरिया के साथ-साथ भूनीम, गोइजा आदि जड़ी बूटी को औषधि रूप में इस्तेमाल कर आदिवासी अनेक बीमारियों से छुटकारा पा लेते रहे हैं। वर्तमान स्थिति में गाँवों एवं जंगलों से आदिवासी की संख्या में कमी देखने को मिल रही है क्योंकि वे अब धीरे-धीरे शहरों की ओर आने लगे हैं जिससे जंगलों में आदिवासियों की संख्या कम होती जा रही है एवं औषधियों के जानकार लोग भी विलुप्त होते जा रहे हैं।

धूप में सूखने के लिए रखे गए कोरिया के फल

आदिवासियों को अनेक जंगली औषधियों का ज्ञान रहा है, परन्तु अब ऐसे लोगों की संख्या में कमी आ रही है, आज के युवाओं को जागरूक होकर वापिस अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा ताकि इस पारम्परिक ज्ञान को संरक्षित रख पाएँ। आदिवासी क्षेत्र को ऊपर उठाने के लिए हम सभी को उनके क्षेत्रों में जाकर उनसे मिलना होगा और उनके आर्थिक और सामाजिक स्थिति से परिचित होकर उनके विकास और उत्थान के लिए आगे आना होगा तभी आदिवासियों को उचित स्थान और सम्मान मिल पाएगा।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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