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कोल्हान के मानकी-मुण्डा स्वशासन व्यवस्था की वस्तुस्थिति और चुनौतियाँ

झारखण्ड राज्य का कोल्हान प्रमण्डल आदिवासी बहुल क्षेत्र है। इस क्षेत्र में मुख्यता मुंडा, हो, संथाल, उरांव, भूमिज और आदिम जनजाति के लोग निवास करते हैं। कोल्हान प्रमंडल के अंतर्गत तीन जिले आते हैं, पश्चिमी सिंहभूम, सराईकेला-खरसवां और पूर्वी सिंहभूम। कोल्हान, संविधान के अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत आता है और कोल्हान के पश्चिमी सिंहभूम जिले में ‘हो आदिवासियों’ का बोलबाला है। जहाँ क्षेत्र में 'हो आदिवासियों' की अपनी परंपरागत स्वशासन व्यवस्था है।

'हो आदिवासियों' की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था आदिकाल से चली आ रही है। कालांतर में जब गांव बसा कर लोगों ने रहना आरंभ किया और आबादी के बढ़ने के साथ ही संसाधनों की कमी महसूस हुई, तब नए निवास स्थान की तलाश में हो परिवार निकल पड़ते थे। गांव बसाने के लिए उचित स्थान के मिलने पर वे शाम को सरजोम पेड़ के नीचे जमीन साफ करके, अलग-अलग पुउ (दोना) में धान और पानी रखते थे और साथ ही एक जोड़ा मुर्गा और मुर्गी (लाल मुर्गा और सूका कलूटी) छोड़ आते थे। फिर, वो सुबह वापस आते थे। और यदि उस स्थान पर सभी चीज़ें यथावत रहती तो, वे उक्त स्थान पर नया गांव बसाते, अन्यता वे नयी जगह की तलाश के लिए निकल पड़ते थे। हो आदिवासियों की मान्यता के अनुसार यदि धान के पुउ से धान की मात्रा कम होती तो, उक्त स्थान पर अच्छी फसल होने की संभावना नहीं होती है। और यदि पानी के पुउ से पानी की मात्रा कम हुई रहती तो, उक्त स्थान पर पीने योग्य पानी की किल्लत बनी रहती। और इसी प्रकार यदि मुर्गा या मुर्गी मरी हुई मिलती या वहाँ से गायब रहते, तो उक्त स्थान मवेशियों के लिए उपयुक्त नहीं होता। इस कारण तीनों चीज़ों के यथावत रहने पर ही ‘हो आदिवासी’ गांव बसाते थे। उस जमाने में लगभग सभी हो आदिवासी अलग-अलग विद्याओं में निपुण होते थे। उदहारण के तौर पर बोंगा-बुरु (पूजा-पाठ व तांत्रिक विधा), सुसन-दुरेन्ग (नाच-गान व वाद्य-यंत्र), पी-पायटी (खेती-बाड़ी), रेड-रानू (औषधीय व वनस्पतीय) एवं शिकार की कला में निपुण होते थे। इसलिए वे कम संख्या में होते हुए भी बीहड़ व जंगलों में विचरण करने से घबराते नहीं थे।


हो आदिवासियों में गांव बसाने की पहल करने वाले को उक्त स्थान के मालिक का दर्ज़ा प्राप्त होता था। चूँकि, वह कड़ी मेहनत कर, पेड़ों और झाड़ियों को काटकर उस स्थान को रहने लायक बनाता, साथ ही खेती करने लायक जमीनें तैयार करता और पीने के पानी का प्रबंध करने के लिए कुआँ खोदता। जो व्यक्ति मेहनत से संसाधन जुटाता या तैयार करता, वह उसकी सम्पति मानी जाती और उसमें केवल उसी का अधिकार होता। और यह सब कार्य वह अपने परिवार और उसके साथ में आये लोगों के सहयोग से करता। फिर वह व्यक्ति उस स्थान को गांव का रूप देने के लिए, अपने दूर-दराज़ के रिश्तेदारों को उक्त स्थान पर रहने के लिए न्योता भेजता और जो लोग वहाँ बसने के लिए आते वो “किया प्रजा” कहलाते। और वह उन लोगों को रहने और खेती करने लायक जमीन मुहैया करवाता। और वह व्यक्ति उक्त गांव का “मुण्डा” कहलवाता। हो आदिवासियों में जिस व्यक्ति के पास अकूत संपत्ति (धान और मवेशी) और जमीन होती है, उसे वे मुण्डा के नाम से सम्बोदित करते हैं। इस प्रकार, सम्पूर्ण कोल्हान में हो आदिवासियों ने अपने-अपने गाँव बसाये।


वर्तमान समय में, एक मुण्डा को अपना गांव सुचारु रूप से चलाने के लिए, कई सक्षम लोगों की जरुरत पड़ती है। उनमें मुख्य रूप से डाकुआ, दिउरी और देवां हैं। डाकुआ मुण्डा के सन्देश को गांव के जन-जन तक पहुँचाता है। दिउरी का कार्य गांव के मुख्य बोंगा-बुरु (मागे, बा व हेरमुटि) को विधिवत सम्पन करवाने का होता है। और देवां का कार्य गांव में होने वाले महामारी या प्रेतीय शक्तियों से निजात दिलाने का होता है। इनके इतर मुण्डा को जोड़ीदार मुण्डाओं की आवश्यकता होती है, जो मुण्डा को गांव को चलाने के लिए सहयोग करते हैं। साथ ही हर गांव में कविराज होता है, जो बीमारों को जड़ी-बूटी प्रदान करता है।


अंग्रेज़ो के भारत आगमन के बाद, हो आदिवासियों के स्वसाशन व्यवस्था को कानूनी रूप मिला। जिसे विल्किंसन रूल का नाम दिया गया। इसके अंतर्गत अंग्रेज़ों ने हो आदिवासियों की परम्परागत रुड़ी व्यवस्था को अपने हितों की पूर्ति हेतु एवं आदिवसियों की जमीनों को गैर-आदिवासियों से सुरक्षित करने के लिए कानूनी रूप दिया। और सन् 1837 में असुरा गाँव के जमादार मानकी को मानकी का पट्टा देकर अंग्रेज़ों ने हो आदिवासियों से कर लेना आरम्भ किया। इस कानून के अंतर्गत 31 नियम बनाये गए। जिसमें क्षेत्र के मानकी और मुण्डा को शक्ति प्रदत किये गए थे। अंग्रेज़ों ने जमीन के स्वामित्व के लिए रैयतों (जमीन निवासी) को खतियान मुहैया करवाया। और उक्त जमीन के मालिक केवटदार होते थे, जिसमें केवटदार तीन क्रमवार में होते। पहला सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया इन कौंसिल, दूसरा पीड़ का मानकी और तीसरा गांव का मुण्डा होता। कोल्हान का पहला बंदोबस्ती (सेटलमेंट) सन् 1913-14 में किया गया, जिसमें रैयतों को खतियान दिए गए। पुन: बंदोबस्ती सन् 1932 में किया गया। इसके बाद, आजाद भारत में सन् 1964 में बंदोबस्ती (विवादित) हुआ। जिसमें काफी धांधली हुई और मामला कोर्ट तक भी पहुंचा।


खतियान में व्यक्ति की किलि (जाति) से लेकर उसका वंश अंकित रहता है। साथ ही उसके अधिकार में शामिल जमीनों का हिसाब-किताब रहता है। और यह सारी जानकारियाँ मुण्डा और मानकी के पुष्टि के बाद ही खतियान में दर्ज़ होती थी। और यह कार्य तब की बिहार सरकार ने ‘64 में नहीं किया। जिस कारण ‘64 का खतियान विवादों में रहा। इसके अलावा तब की सरकर ने खतियान से केवटदार के साथ ही कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट शब्द को गायब कर दिया। और इस दौरान कई फ़र्ज़ी खतियान निर्गत किये गए। जिससे बहुत सारे हो आदिवासियों को अपनी जमीनों से हाँथ गवाना पड़ा।

सन् 1913-14 का एक खतियान

वर्तमान समय में अधिकतर मानकी और मुण्डा को संविधान और भारतीय कानूनों के अंतर्गत अपने अधिकारों की जानकारी नहीं है। जिस कारण मौजदा दौर में इनकी साख घाट गयी है। अब पहले की तरह इनका गांव और इलाकों में इनका रुतबा भी घट गया है। गांव के अधिकतर युवा इनकी इज्जत भी नहीं करते हैं, केवल दस्तावेजों में हस्ताक्षर करने के लिए इनके घर जाते हैं। विल्किंसन रूल के तहत मुण्डा को अपने गांव में धारा 144 लगाने का अधिकार होता है, साथ ही गांव से किसी व्यक्ति को नियमानुसार निष्कासित या बसाने का अधिकार भी होता है। गांव की प्रति जमीनों (सामूहिक) पे ग्राम के मुण्डा का अधिकार होता है। जहाँ वे ग्राम सभा के माध्यम से निर्णय लेकर उक्त जमीनों को गांव के हित के लिए इस्तेमाल में लाते हैं। लेकिन, मौजूदा दौर में सरकारों द्वारा षड़यंत्र के तहत गांव की प्रति जमीनों को सरकारी जमीन का दर्ज़ा देकर सरकार व पूंजीपतियों के हित के लिए गैर-कानूनी तरीके से अधिग्रहण कर लिया जाता है।


जिस जमीन को हो आदिवासियों ने कड़ी मेहनत कर रहने व खेती करने लायक बनाया, आज उन्हीं जमीनों पर उद्योगपतियों व सरकारों की बुरी नज़र रहती है। और इन्हें हथियाने के लिए तरह-तरह के हथकण्डों को समय-समय पर भिभिन्न सरकारों ने पूजीपतियों के साथ मिलकर अपनाया। उदाहरण के तौर पर क्षेत्र की शिक्षा को लचर किया गया। ताकि, क्षेत्र के आदिवासी और मुलवासियों के बच्चों को उचित शिक्षा न मिले और वे मजदूरी के लिए पलायन को मजबूर हो जाएँ और गाँव की ग्राम सभा कमजोर हो जाये। मानकी और मुण्डा को सरकार के खिलाफ विरोध करने से रोकने के लिए, क्षेत्र के मानकी और मुण्डा को राज्य सरकार की और से मासिक मानदेय के नाम पर चंद रुपये दिए जाते हैं। चूँकि, सरकारें अच्छी तरह से जानती है की मौजदा समय के अधिकतर मानकी और मुण्डाओं की आर्थिक स्तिथि काफी दयनीय है। आदिवासियों की स्वसाशन व्यवस्था पर प्रहार करने के एवज में ‘पंचायत चुनाव’ करवाना आरम्भ किया गया। नतीजतन, मुखिया और वार्ड सदस्यों का वर्चस्व क्षेत्र के सम्पूर्ण गाँवों में होने लगा। जिससे, ग्रामीणों की नजर में मानकी और मुण्डा की अहमियत घट गयी।


राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों पर भूरिया समिति की सिफारिशों पर आधारित “पंचायत-उपबन्ध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996" के 24 दिसंबर, 1996 को लागु होने पर भी सरकारों द्वारा ग्राम सभा को कमजोर करने के लिए भरसक प्रयास किये जाते रहे हैं। जबकि, सरकारों का कार्य होता है कि कानूनों को सही तरह से लागु कर के क्षेत्र के विकाश में कार्य करना। लेकिन, सम्पूर्ण भारत में आदिवासियों की जमीनों को लूटने के इरादे से ही सरकारें कार्य करती है। और जमीन लूटने के क्रम में जब आदिवासियों की हत्याएं होती है तो देश के अन्य वर्गों की और से कोई सहायता नहीं मिलती है। चूँकि, गैर-आदिवासी लोग, आदिवासियों के बारे में जानकारी रखते ही नहीं हैं, और जो जानकारी होती भी है तो वो बॉलीवुड की अधकचरा ज्ञान होती है। जिस कारण अधिकतर गैर-आदिवासी समुदायों के लोग, आदिवासियों के प्रति कोई सहनभूति नहीं रखते। और इसका सबसे बड़ा जिम्मेदार देश की मीडिया है, जो देश की चौथी स्तम्भ मानी जाती है। वो आदिवासी मुद्दों को बड़ी आसानी से दबा देती है और देश के समक्ष आदिवासियों की गलत चित्र पेश करती है। उदाहरण के तौर पर, हालिया मणिपुर में हो रही घटना को देख लीजिये।


मणिपुर में हो रही घटना को देश की मीडिया ने पूरी तरह से दबा कर रख दिया है और जो खबर दिखा भी रहें है तो तोड़-मरोड़ कर। मणिपुर में जारी हिंसा का मुख्य कारण वहां की जमीन है। जिसे गैर-आदिवासी मैती समुदाय हथियाना चाहती है। और इसके लिए उन्होंने हाई कोर्ट का सहारा लिया, ताकि वे अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल हो जाएं और मणिपुर के नागा और कुकी आदिवासियों से जमीन खरीद सकें। मणिपुर राज्य में भले मैती समुदाय बहुसंख्यक हैं। लेकिन, राज्य की अधिकतर भूखंड और सम्पूर्ण जंगलों में आदिवासी समुदायों का स्वामित्व है। यही स्थिति भारत के सम्पूर्ण आदिवासी क्षेत्रों में है। इसीलिए, आये दिन देश के आदिवासियों पर तंत्र द्वारा अत्याचार किये जाते हैं।


देश के आदिवासियों को संविधान के तहत कई अधिकार और संरक्षण मिले हैं। जिसके कारण, आदिवासी आज भी अस्तित्व में हैं। लेकिन, उनकी सही जानकारी नहीं होने और सरकारों की मंशा ठीक नहीं होने के कारण, वे आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकारें चाहे तो अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों के हित में बने कानूनों को सही रूप में क्रियान्वयन कर, आदिवासियों की स्थिति में सुधर कर सकती है। लेकिन, ऐसे करने पर पूँजीपतियों को काफी नुकसान होगा। और पूंजीपतियों को नाराज़ करने का जोखिम शायद ही कोई सरकार उठाना चाहेगी। जिस कारण अनुसूचित क्षेत्रों के आदिवासियों का दमन बदस्तूर जारी रहेगा। और सरकारों और पूंजीपतियों से लोहा लेने के लिए, क्षेत्र के युवा आदिवासियों को आगे आना होगा। स्वप्रथम, स्वसाशन व्यवस्था को सशक्त करने के लिए, उन्हें अपने क्षेत्र के मानकी और मुण्डा को सहयोग करना होगा। युवाओं को, संविधान में आदिवासियों से जुड़े कानूनों को जानना जरुरी होगा, साथ ही बाकि कानूनों की भी जानकारी होना सुनिश्चित करना होगा। ताकि, उनका अध्ययन करने के पश्चात जरुरी कदम उठा सकें। हमारे पूर्वजों ने खुनी लड़ाइयाँ लड़ कर जमीनों और जंगलों को सुरक्षित रखा था। अब हमारी बारी है लड़ाई लड़ने की, और यह लड़ाई एकजुट होकर और ज्ञान हासिल कर ही जीती जा सकती है।


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