छत्तीसगढ़ के आदिवासी जंगलो तथा गाँवों में रहते हैं, और अपनी आवश्यकताओं के लिए जंगलों, कृषि कार्य तथा पशुपालन पर निर्भर रहते हैं। प्राचीन काल से पालतू पशुओं में गाय प्रमुख जानवर है। गाय का सिर्फ़ पौष्टिक दूध ही नहीं, बल्कि यहाँ के आदिवासी गोबर का भी उपयोग करते हैं।
कृषि कार्य में खाद के रूप में, घर की लिपाई-पोताई करने, आग जलाने आदि के लिए गोबर का भरपूर प्रयोग किया जाता रहा है। अब तो गोबर को बेच कर धन राशि भी प्राप्त किया जा रहा है, जिससे आदिवासी आत्मानिर्भर बन रहे हैं।
सरभोका में रहने वाले रामकुमर जी, जो कृषि कार्य और पशुपालन करते हैं ने बताया कि, "मेरे पास 15 गाय और 6 बैल हैं ,जिसके गोबर से मैं ,जैविक खाद बनाता हुँ। इसके लिए हम दो मीटर लम्बा और एक मीटर चौड़ा तथा एक मीटर गहरा गढ्डा में पैरा, भूसा,और राखड़ के साथ गोबर मिला के डाल देते हैं और ऊपर में गाय के मूत्र को डालकर गड्ढ़े को बंद कर देते हैं। चार-पांच महीने के बाद खाद तैयार हो जाता हैं, और इसका उपयोग धान, टमाटर, आलू, भांटा, मिर्च आदि सभी प्रकार के फसलों में करते हैं जिससे फसल बहुत अच्छा होता हैं। इससे हमारे खाद का पैसा बच जाता है और मिट्टी की उपजाऊ शक्ति भी संतुलित बनी रहती है ।
आदिवासी महिला समूह द्वारा भी गाँव के गावठनों में गोबर के जैविक खाद का निर्माण किया जा रहा है, जिससे छत्तीसगढ़ सरकार से अच्छी आमदनी प्राप्त होती है।
छत्तीसगढ़ के ज्यादातर आदिवासी मिट्टी के बने घरों में रहते हैं, इसके लिपाई-पोताई के लिए गाय के गोबर का इस्तेमाल प्राचीन काल से किया जा रहा है। इस गाय के गोबर को पानी मे मिलाकर अपने घर के फर्श कि लिपाई या पोताई दो-तीन दिनों के अंतराल मे करते रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे घर की पवित्रता बनी रहती है। अनेक घरों में दीवार की पोताई भी पहले गोबर से करते हैं, उसके ऊपर छूही (सफ़ेद मिट्टी ) की पोताई किया जाता है।
अनेक आदिवासी महिलाएं गाय के गोबर और धान के भूंसा (या कोंढा़) को मिलाकर छेना बनाते हैं। जिसका उपयोग आग जलाने में किया जाता है। छेना में आग जलाकर उसके ताप और सरसों के तेल से छोटे बच्चों की मालिस करते हैं, जिससे बच्चों के हाथ पैर काफ़ी मजबूत बनते हैं। छेना की सहायता से आग को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भी असानी से ले जाया जा सकता है, इसमें लगी आग लगभग 4-5 घंटों तक नहीं बुझता है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री मानीय श्री बुपेश बघेल जी ने जुलाई 2020 में गोधन न्याय योजना प्रारम्भ किये हैं। जिनके अंतर्गत पशुपालकों तथा किसानों से गाय के गोबर को 2 रु.प्रति किलो की दर से खरीदा जा रहा है जिससे आदिवासी किसानों एवं पशुपालकों को बहुत लाभ हो रहा है और अच्छी धन राशि प्राप्त हो रही है। कोरबा जिले के कोदवारी गाँव में रहने वाले एक आदिवासी किसान सुखराम टेकाम ने बताया "मेरे पास 40-50 गाय हैं, जिससे प्रति दिन मैं लगभग 150 किलो गोबर बेचता हुँ, और मुझे अच्छी आमदनी प्राप्त हो रही है।"
गोबर आदिवासियों के जीवन शैली का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग रहा है, परंतु अब लोग पक्के मकानों के चक्कर में इसके उपयोग से दूर होते जा रहे हैं। ऐसे में चाहिए कि समाज के ही लोग आगे आकर गोबर का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने का बढ़ावा दें।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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