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चाँदागढ़ की कली कंकाली, कैसे बनी, गोंडवाना की माता कली कंकाली

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


दक्षिण गोंडवाना की राजधानी, चाँदागढ़ में, गोंडी सगा देवो की जन्म दायिनी शक्ति महाकाली कली कंकाली दाई का प्राचीन शक्ति स्थल स्तिथ है। यहाँ, प्रति वर्ष, चैत्र माह की पूर्णिमा के पर्व पर, सवा महीने का मेला लगता है। इस मेले में महराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश से लाखों श्रद्धालु, अपनी मनौतियाँ मनाने एवं दर्शनार्थ के लिए, प्रति वर्ष पधारते हैं। कोया वंशीय, गोंड समुदाय के धार्मिक मान्यता के अनुसार, आदि शक्ति महाकाली कली कंकालीन दई, गोंड सगा (उंदीवेन सगा, रंडवेन सगा, नाल्वेन सगा और पार्रडवेन सगा) देवो की जन्म दायिनी शक्ति है, जो यादमाल पूरी के यादरहुड़ राजा की कन्या है। आज, जिसे चाँदागढ़ कहा जाता है, वह प्राचीन कालीन यादमाल पूरी है। जहाँ पर, जुगाद राहुड के पुत्र, यादरहुड़ राजा की राजधानी थी। यादरहुड़ राजा का विवाह, पदमाल पूरी के, कोयपूत राजा की कन्या, सोनादाई के साथ हुआ था।


प्राचीन पदमाल पूरी को, वर्तमान में सिरपुर कहा जाता है। जो आंध्र प्रदेश के, आदिलाबाद जिले में है। आज भी गोंड समुदाय के लोग, चाँदागढ़ को तादोना नार (पितृ स्थल) और सिरपुर को काकोना नार (मातृ स्थल) कहते हैं। यादराहुड़ और सोनादाई के संसारिक जीवन में, दाई कली कंकालीन ने जन्म लिया और तत्पश्चात उन्होंने मंडुन्द कोट (तैतिस कोट) गोंड समुदाय के सगा देवो को जन्म दिया। जिनकी उपासना, आज भी गोंड समुदाय के लोग, अपने सगा देवो के रूप में करते हैं।

चाँदागढ़ की कली कंकालीन दाई

आदि शक्ति महाकाली कली कंकालीन दाई के विषय में, अनेक चमत्कारीक घटनाओं की गाथा, गोंड समुदाय में, जनश्रुतियों एवम लोक गीतों के रूप में आनादि काल से प्रचलित है। उनके जन्म के विषय में, ऐसी जनश्रुति है कि, उनकी माता सोनादाई, जब गर्भावस्था में थी। तब, उन्हें कोडवारी (यह कौलारी वनस्पति, जंगलों में नदी-नालों के तटों पर ही होती है।) के पत्तियों की सब्जि खाने की तीव्र इच्छा हुई। और सोनादाई ने, यादरहुड़ राजा के सामने, यह इच्छा जाहिर की। यादरहुड़ ने, तुरंत अपने सेवक को, सोनादाई के इच्छा की पूर्ति करने का आदेश दिया। सेवक, हर दिन सुबह जंगल में जाकर, कोडवारी की, कौले पत्तियाँ तोड़ लाया करते थे। एक ही तरह की सब्जी, करीब एक सप्ताह भर खाने के बाद भी, सोनादाई की इच्छा तृप्त नही हुई। उन्होंने फिर से, उसी सब्जी की मांग की। किंतु, सेवकगण उनकी मांग की पूर्ति, नहीं कर पाए। क्योंकि, सारी कौले पत्तियाँ, जरठ हो चुकी थी। और जरठ पत्तियों की सब्जी, नहीं बनाई जा सकती। लेकिन, यादरहुड़ राजा के, लाख समझाने पर भी सोनादाई की हठधर्मि कायम रही। दूसरे दिन, सोनादाई से रहा नहीं गया और वह सवयं अपनी सेविकाओं के साथ, कोडवारी कल्लियाँ (कोडवारी पेड़ के कौले पतियों को गोंडी कल्लिंग कहा जाता है) तोड़ लाने नजदीक के जंगल में, पालकी पर सवार होकर चले गईं।


सोनादाई की गर्भवस्था के दिन, करीब पुरे हो चुके थे। पालकी पर सवार होकर चलने में भी, उन्हें कठिनाई हो रही थी। जब, उन्होंने पालकी से उतर कर, अपनी सेविकाओं के साथ धीमे-धीमे चलना आरम्भ किया। तब, यादमाल पूरी के पास बहने वाली नदी किनारे, उन्हें कौले पत्तियों वाला, कोडवारी पेड़ दिखाई दिया। कोडवारी पेड़ के लहलहाते कल्लियों को देखकर, उनके मुँह में पानी आ गया। उनसे और रहा नहीं गया और खुशी के मारे, वहाँ कुछ क्षण के लिए, अपनी गर्भवस्था को भूल सी गयीं और जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने की चेष्ठा कर बैठीं। और वह अपना तौल (वजन) ठीक से नहीं संभाल पाने के कारण, रास्ते पर गिर पड़ी। और उनके गर्भ को कुछ झटका सा लगा और तीव्र प्रसव पीड़ा आरंभ हो गई और वह असहनीय दर्द के मारे कराह उठीं। सोनादाई को गिरते देख, उनकी सेविकाऐं दौड़ पड़ी और उन्हें संभालकर, जमीन पर बिठाया गया। आनन-फानन में कौलारी के, कौले पत्तियों की डालियों को तोड़कर, जमीन पर बिछाकर, उसकी सेज पर सोनादाई को लिटाया गया। ठीक उसी क्षण, वातावरण में, आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया और संपूर्ण आसमान, काले बदलों से छा गया।



मेघ गर्जना के साथ ही बिजली चमकना आरम्भ हो गया। और तीव्र गति से, हवा बहने से वातावरण डरावना सा हो गया। इधर, असहनीय प्रसव पीड़ा से, तड़पने वाली सोनादाई को, राजमहल में अतिशीघ्र कैसे ले जाया जाए। यह समस्या, सेविकाओं के समक्ष खड़ा हो गया। शीघ्र ही पालकी ढोने वाली, काव्वालियों को पालकी ले आने को कहा गया। किंतु, ठीक उसी क्षण, आँखे चौंधियाने वाली बिजली कौंध उठी और सोनादाई, इतनी चिल्ला उठीं कि, उसी क्षण उनके गर्भ से, एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। और जन्म लेते ही उस बच्चे ने रोना आरम्भ कर दिया।


सेविकाओं ने, उस बच्ची को सोनादाई के आंचल से लिटा दिया। किंतु, आश्चर्य की घटना यह हुई कि, उसके रोने की आवाज के साथ ही तीव्र गति से बहने वाली हवा थम गई, काले बादल छट गए और आसमान में सूरज प्रकाशमान हो गया, संपूर्ण वातावरण शांत हो गया तत्पश्चात् सोनादाई और उनकी बेटी को पालकी में बिठाकर राजमहल में लाया गया। इसतरह, राजमहल के नरम सेज पर जन्म लेने के बजाय, सोनादाई की बेटी ने, जंगल में, कोडवारी कल्लियों की सेज पर, खुले आसमान के नीचे अपना प्रथम चरण, इस सिंगार दीप में रखा। इसी कारण, कोडवारी कल्लियों की सेज पर जन्म लेने वाली कन्या का नाम, कली रखा गया। जिन्हें, बाद में कलियां कुमारी कहा जाने लगा। ऐसा कहा जाता है कि, कलियां कुमारी, दैवीय शक्तिवाली कन्या थी। और जब उन्होंने जन्म लिया, तब उनके ऊपर सूरज की प्रखर रोशनी नहीं पड़े, इसलिए प्रकृति ने मेघों को आच्छादित कर, सूरज को ढक लिया और बिजली की कौंध एवं गर्जना के साथ उनका जन्म हुआ। इसलिए, प्रकृति की शक्ति में, साक्षात सोनादाई की कोख से जन्म लिया, ऐसी जनसाधारण की मान्यता है।


चांदागढ़ की महाकाली, कली कंकाली के बचपन के बारे में, ऐसा कहा जाता है कि, वह बचपन में, अपने दादाजी के साथ नित्य सुबह-शाम टहलने जाया करती थीं। एक दिन टहलते-टहलते थक जाने की वजह से, उन्होंने अपने दादाजी से, अपने कंधे पर बिठा ले चलने को कहा। लेकिन, पाँच वर्षीय कली का भार इतना अधिक था कि, उनके दादाजी, उसे कंधे पर उठाकर, ज्यादा दूर नहीं चल पाए और नीचे उतारकर उन्हें पैदल ही चलने को कहा। तब, कली ने अपना भार, मोगरे के पांच फूलों के बराबर कर लिया और उनके दादाजी उन्हें आसानी से उठाकर घर चले आए। तब, कली ने अपने दादाजी को वचन दिया था कि, जिस दिन भी उसके वजन में, कोई परिवर्तन हो जाएगा, उस दिन वह, कली से फूल बन जाएगी।


आगे चलकर, कलियां कुमारी ने, कली कंकाली का रूप धारण कर, मंडुन्द कोट (तैतिस कोट) कोयला भूताल सगा पेनो (सगा देव) को जन्म दिया। इस विषय में, कोया वंशीय, गोंड समुदाय में, ऐसी जनश्रुति है कि, एक दिन गर्मी के मौसम में, तेज गर्मी की वजह से दोपहर के वक्त, नदी के शीतल जल में, जलविहार करने की उनकी तीव्र इच्छा हुई। वह बचपन से ही, अपनी सेविकाओं के साथ पास में स्थित नदी के कुंड में, जलविहार करने नित्य जाया करती थीं। लेकिन, उस दिन किसी को भी खबर न करते हुए, वह अकेले नदी के कुंड में, जलविहार करने चली गईं। नदी तट पर जाने के पश्चात, उनके दिल में यह विचार आया कि, नित्य इसी कुंड में जलविहार करने के बजाए, नदी के किसी अन्य कुंड में, जल विहार का आनंद लिया जाए। इसलिए, जिधर नदी का बहाव था, वह उसी ओर किनारे-किनारे चली गईं। कुछ ही दूर पर, उन्हें पानी से ओतप्रोत भरा हुआ, एक गुण दिखाई दिया। वहां जलविहार करके, जब वह घर लौट रहीं थीं। तब उनका ध्यान, नदी किनारे स्थित परसापेन ठाना की ओर गया। वहां, एक सुकाआसरा भुमका पूजा में लीन था। कली ना चाहते हुए भी, परसापेन शक्ति का दर्शन करने, सरना स्थल की ओर बढ़ गईं। हाँथ जोड़कर, सेवा जोहार करने के पश्चात, जब वह लौट रहीं थीं। तब सुकाआसरा ने, उन्हें तोया काया (गूलर फल) प्रसाद के रूप में, खाने को दिया। जिसे स्वीकार कर, उन्होंने खा लिया और अपने घर लौट आईं। उस दिन, शाम के वक्त, टहल कर आने के बाद, उनके दादाजी ने पाया कि, कनिका भांगरे के पांच फूलों के बजाए, उनका वजन, एक फूल से अधिक बड़ा हुआ था।


दूसरे दिन, दोपहर को, वह फिर से अकेली नदी के कुंड में जलविहार करने चली गईं। जलविहार के बाद, वह दोबारा, परसापेन का दर्शन करने गईं। तब उन्हें भूमका ने, दो कोया फल, प्रसाद के रूप में ग्रहण करने हेतु देने के साथ ही उन्हें, मंडुन्द कोट पेनो कई दाई बनने का आशीर्वचन, भूमका की ओर से दिया गया। भूमका की ओर से दिए गए फल, परसापेन का प्रसाद मानकर, वह श्रद्धापूर्वक, प्रतिदिन, ग्रहण करते चली गईं। और उसी अनुपात में, उनका भार भी बढ़ता गया।

सर्वप्रथम, उनका भार मोगरे के पांच फूलों के बराबर था। प्रथम दिन एक कोया फल खाने से 6 (5+1) फूलों के बराबर हुआ, दो फल खाने से 8 (6+2) फूलों के बराबर, तीन फल खाने से 11 (8+3) फूलों के बराबर, चार फल खाने से 15 (11+4) फूलों के बराबर, पांच फल खाने से 20 (15+5) फूलों के बराबर, छे फल खाने से 26 (20+6) फूलों के बराबर और सातवें दिन, सात फल खाने से 33 (26+7) फूलों के बराबर हो गया। आठवें दिन, जब वह जलविहार करने पुन: गईं। तब, उन्हें, वह भूमका दिखाई नहीं दिया। जिससे, वह निराश होकर, घर लौट गईं। वह उसके बाद, कई दिनों तक, वहां जाते रहीं। किंतु, उन्हें, सुकाआसरा भुमका कहीं भी दिखाई नहीं दिया। तब जाकर उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि, सुकाआसरा भुमका के रूप में स्वयं परसापेन ने उन्हें दर्शन देकर, ‘मंडुन्द कोट संतानों’ का आशीर्वाद दिया है। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, वैसे-वैसे कली अपने आप में, कुछ बदलाव महसूस कर रहीं थी। क्योंकि, वह गर्भवती हो गयीं थी। इसलिए, उन्होंने अपने आप को कलंकित (कंकाली) समझकर, एक दिन, चुपचाप बीहड़ जंगल में निकल गईं। रास्ते में, उनकी भेंट, कोटा परंदुली कोट गणराज्य की दाई रायतार जंगो से हुई। जंगोदाई ने, उन्हें अपने कोयटुल (आश्रम) में ले जाकर आसरा दिया।



उसी आश्रम में, कली कंकाली ने, मंडुन्द कोट पेनो को जन्म दिया और उसके परवरिश मे जुट गई। कंकाली के बच्चे, बड़े हो जाने पर, वे एक दिन, नीलकोंडा पर्वतीय माला में निकल गए। शाम के वक्त, घर लौटने का रास्ता भूल जाने के कारण, वे जंगल में भटकते रहे। दिन-रात भटकते-भटकते, नदी-नाले और पहाड़-पर्वत पार कर, उत्तरी दिशा की ओर, कचारगढ़ पर्वतीय मालाओं में निकल गए। जंगल में, उनकी भेंट संभू शेख से हुई, उन बच्चों का भूख-प्यास के मारे हाल बेहाल देखकर, गवरा माता को दया आ गयी। उन्होंने, उन बच्चों को अपने पास बुलाया और अपने कोयटूल में ले जाकर, खाना खिलाया। उन बच्चों का स्वभाव, बहुत ही नटखटी था। गौवरा दाई को, उन्होंने परेशान करना आरंभ किया। जिसे देख, शंभू क्रोधित हो गए और उन्हें 12 वर्षों की कैद बंदी की सजा सुना कर, कचारगढ़ पर्वत की, कोयली कचार गुफा में बंद कर दिया।


शंभू शेख ने, बच्चों को गुफा में बंद कर रखा है, ऐसी सुचना, जब कली कंकाली को पता चला। तब वह क्रोधित हो गईं और अपने बच्चों को मुक्त कराने के लिए, कोयली कचार पर्वतीय श्रृंखलाओं की दिशा में, शीघ्र रवाना हो गईं। जब रास्ते में, उन्हें एक दुर्घटना दिखाई दिया, उस वक्त, कली कंकाली ने विकराल रूप धारण किया था। उनके जिस्म में, असीम शक्तियाँ संचित हो गईं थी। और उन्होंने, उस शक्ति के बल पर, शेर को अपने वश में कर लिया और उस पर सवार होकर, शंभू की तलाश में निकल गईं। कोयली कचार पर्वतीय मालाओं में, उन्हें शंभू गवरा दिखाई दिए। जो गुफा में, बंद बच्चों के लिए खाना ले जा रहे थे। यह देख, कली कंकाली और भी क्रोधित हो गईं, और उन्होंने, शेर को शंभू पर हमला करने का आदेश दिया। कली कंकाली का आदेश पाकर, शेर ने शंभू पर छलांग लगा दिया और अपने पंजों के नीचे दबोच लिया, कली कंकाली ने शंभू की छाती पर त्रिशूल रखकर, उनसे अपने बच्चों की मांग की।



जब शंभु ने, उनके बच्चों को मुक्त कराने का मार्ग बताया। तब जाकर उन्होंने शंभू को छोड़ा, और बच्चों को मुक्त कराने के लिए, कोयली काचार गुफा की ओर निकल गईं। बाद में, पहंदी पारी कुपार लिंगो ने, जंगो रायतार दाई और हीरासुखा पाटालीर की मदद से, कली कंकाली के बच्चों को मुक्त किया और उन्हें अपना शिष्य बनाकर, गोंडी पुनेम के सदमार्ग पर शिक्षित एवम दीक्षित किया। सर्वप्रथम, लिंगो ने उन्हें पार्रंड (बारह सगा) शाखाओं में विभाजित किया और उन्हीं के सहायता से, संपूर्ण कोया वंशीय समुदाय को, सगायुक्त सामाजिक संरचना में विभाजित, गोंडी पुनेम का प्रचार एवम प्रसार किया। इसलिए, कोया वंशीय, गोंड समुदाय के लोग, कली कंकाली दाई के बच्चों को, सगा देवो के रूप में पूजते हैं। इस तरह, यादमाल पूरी याने वर्तमान चाँदागढ़ की कलिया कुमारी कंकालीन बनकर, गोंड समुदाय के सगा देवो की दाई और अपने बच्चों को मुक्त कराने के लिए, विक्राल रूप धारण कर, महाकाली बनी।


आपको, गोंड आदिवासीयों द्वारा जगह और समय अनुसार, ये सब कहानी, अलग-अलग सुनने को मिलेगी। लेकिन, इन सभी कहानियों में, आपको आधे से ज्यादा कहानियाँ, एक ही लगेंगी। क्योंकि, मुख्य रूप से, कली कंकाली दाई के जीवन को, उस समय लिपिबद्ध नहीं किया गया था। और वर्तमान समय में, गोंड समुदाय के इतिहासकार, इसे लिपिबद्ध कर रहे हैं।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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