कोरबा जिला का कुल क्षेत्रफल 7,14,544 हेक्टेयर है, जिसमें से 2,83,497 हेक्टेयर वन भूमि में आता है, जो कि कुल क्षेत्रफल का लगभग 40% है। इन्हीं वनों के बीच आदिवासी अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इन वनों से प्राप्त होने वाले फल-फूल, कंद, पत्ती, पेड़-पौधे आदि को सब्जी बना कर सेवन करते हैं। इन्हीं में से एक ऐसा पौधा है जिसे कच्छेर के नाम से जाना जाता है, इस पौधे के सभी भाग को आदिवासी घरों में सब्जी के रूप में तैयार किया जाता है। जिसमें से पत्ती वाले भाग को कच्छेर-पान और उसके तने वाले भाग को कच्छेर-भोंगा कहते हैं।
कोरबा जिले में मानसून का वर्षा मध्य जून से सितम्बर के समापन तक रहता है। इसी बीच में यह पौधा का अधिक उपज देखने को मिलती है। इसकी अधिकतम ऊंचाई लगभग चार फीट तक होती है, पौधे के एक तने में एक ही पत्ती होती है। यह पौधा कोचाई पौधे के समान दिखाई देती है लेकिन इस कच्छेर के पौधे में कोई कंद नहीं मिलता है, जैसा कि कोचाई के पौधे में होता है।
कोरबा जिले के तहसील पोड़ी-उपरोड़ा के ग्राम रिंगनिया में रहने वाली 'जाम बाई ' जो के बिंझवार समाज से हैं। उन्होंने बताया की इस कच्छेर के पौधे को प्राचीन समय से सब्जी के रूप में उपयोग करते आ रहे हैं। इस पौधे को जंगल में जहाँ पर जमीन का स्तर कम रहता है, वहीं देखा जाता था। आज-कल इस पौधे के जड़ को लाकर घर के आस-पास ऐसे जगह में गाड़ देते हैं, जहाँ पर बरसात का पानी अधिक जमा होता है। यह पौधा का एक निश्चित समय तक होता है, उसके बाद यह पिघलना शुरू कर देता है। यह पौधा पिघले उससे पहले इसे काट कर घर में लाया जाता है।
घर लाने के बाद इसे अच्छी तरह से साफ करके इसके पत्तीयों को अलग कर लिया जाता है। फिर उस पत्ती को तेज धुप में दो-तीन दिन तक सुखाया जाता है, जब तक की उसकी नमी दूर न हो जाये। उस सूखे हुए पत्ती को हाँथ से मसल कर छोटे-छोटे टुकड़ों मे कर लिया जाता है फिर उसे किसी थैले में भर कर रखे रहते हैं। जब भी सब्जी की जरूरत होती है, तो इस कच्छेर के पत्ती को खट्टे (टमाटर) के साथ बना कर खाते हैं। जो खाने में अत्यधिक स्वादिष्ट होता है।
कच्छेर पौधे के तने को हँसिया के सहायता से छोटे- छोटे भागों मे काटा जाता है। कटे हुए कच्छेर के तने को ही 'कच्छेर -भोंगा' के नाम से जानते हैं। काटते समय उस पौधे के ऊपर के भाग को अलग किया जाता है, जिससे की सब्जी बनाने में इसका स्वाद बना रहे। और कुछ-कुछ तनों के बीच छोटे से उसके फूल भी रहते हैं, जो कि बहुत कड़वा रहता है उसे भी काटते समय अलग किया जाता है। इसी तरह सभी तनों को काट कर किसी पात्र में इकट्ठा करते हैं।
इस कच्छेर-भोंगा को तेज धुप में दो-तीन दिन तक रखते हैं, जब तक कि यह पुरी तरह से सुख न जाये। इसे सुखाने के लिए किसी कपड़े या चटाई को अच्छी तरह से फैलाकर उसके ऊपर कच्छेर-भोंगा को बारीकी से रखा जाता है। इसे सीधे जमीन में नहीं सुखाया जाता, क्योंकि जमीन में सुखाने पर यह पिघल कर चिपक जाता है जिससे अच्छी तरह से यह सूख नहीं पाता। इसलिए इसे किसी वस्त्र मे रखकर सुखाते हैं। पुरा सूख जाने के बाद इसे एक पात्र में सुरक्षित रखा जाता है।
जब भी इसे सब्जी के रूप में बनाते हैं, तो इसमेंं खट्टा मिलाया जाता है। क्योंकि यह गले को थोड़ा खरास लगता है, इसी खरास को दूर करने के लिए इसमें खट्टा मिलाया जाता है।
आप कभी भी हमारे कोरबा जिला में आयें तो इस अनोखे कच्छेर-भोंगा का स्वाद अवश्य लें। आजकल कई प्रकार के सब्जी प्राप्त होने के कारण ऐसे प्राचीन साग-सब्जी विलुप्त होते जा रहे हैं। हमें ऐसे ही प्रकृति से प्राप्त चीजों का सेवन करना चाहिए। इस तरह की प्राकृतिक सब्जी का सेवन करने से हमारा शरीर संतुलित रहता है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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