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जानिए छत्तीसगढ़ के आदिवासी, मुहँ में हुए छाले किस भाजी से दूर करते हैं?

Ratna Agariya

प्राचीन काल से आदिवासी प्रकृति के बीच रहते आए हैं, उनका अधिकतर भोजन वनों से ही प्राप्त होता है और वनोत्पाद से ही उनका जीवन यापन होता है। सुलभता से प्राप्त होने वाले साग-सब्जी ही इनके मुख्य आहार हैं। पर्याप्त संसाधन न होने के बाउजूद वे बिना शिक़ायत अपना जीवन निर्वाह कर लेते हैं। आदिवासी अपने साग सब्जियों को बहुत कम ही तेल मसालों के साथ बनाते हैं। वे इन सब्जियों के प्राकृतिक स्वाद को अनुभव करने में विश्वास करते हैं।


ऐसे ही एक साग है सुनसुनिया, जिसे पकाने के लिए तेल-मसालों की उतनी ज़रूरत नहीं पड़ती फ़िर भी खाने में ये बहुत ही ज़्यादा स्वादिष्ट होते हैं। यह भाजी सामान्यतः दलदली क्षेत्रों में पाई जाती है, या जहाँ पानी की अधिकता होती है। इसे कच्चा भी खाया जा सकता है और सुखाकर भी खा सकते हैं। यह भाजी पकने में ज्यादा समय नहीं लेती और जल्द ही पककर तैयार हो जाती है। खाने में इसका स्वाद हल्का मीठा होता है। इस सुनसुनिया भाजी को तोड़कर ज्यादा समय तक नहीं रखा जा सकता है, धीरे-धीरे इसके पत्ते पिले होकर सड़ने लगते हैं। इसी कारण आदिवासी इसे दू दिनिया भाजी भी बोलते हैं।

दलदली स्थल में उगे सुनसुनिया भाजी

आकर में इसके लंबे-लंबे तने होते हैं और उस पर चार-पाँच पत्ते लगे होते हैं। इसके पौधे ज्यादातर पानी में ही पाए जाते हैं और एक बार उगने के बाद अपने आप ही फैलने लगते हैं। गॉंवों में नलकूप के आदि के पास बने पानी के गड्ढों या नाली के आस पास भी यदि इसके पौधों को फेंक दिया जाए तो वहाँ भी ये उगने लगते हैं।


इस भाजी की सब्ज़ी हमारे शरीर में शीतलता बनाए रखती है, और शरीर के गर्म हो जाने से जो बीमारियां होती हैं, जैसे शरीर पर फोड़े होना या मुहँ पर छाले पड़ना, इन सबसे राहत मिलती है। यदि मुहँ पर छाले हों तो इस भाजी के खाने के बाद छाले साफ़ हो जाते हैं।


इस भाजी को ग्रामीण आदिवासी न सिर्फ़ अपने खाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, बल्कि इसे तोड़कर हाट-बाज़ारों में बेचा भी जाता है, जहाँ से कुछ आमदनी प्राप्त हो जाती है। कई ग्रामीण तो इस तरह की अपने से उग जाने वाली भाजियों को यहाँ-वहाँ से तोड़कर बेचते हैं, और इसी से ही उनका जीवन निर्वाह हो जाता है।

कोरबा जिले की 72 वर्षीय लक्ष्मनिया बाई भी इस भाजी को बेचने के लिए बाज़ार जाती हैं। वे बताती हैं कि इसी तरह के वनोत्पादों को बेचकर ही उनका जीवनयापन हो रहा है।


नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

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